Thu. Mar 28th, 2024

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परदे के पीछे का शोर मचाता नायक: सुभाष साहू

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filmania entertainment


-गौरव

सिनेमा में परदे पर दिख रहे नायकों से तो हर कोई वाकिफ होता है, पर असल नायक तो वो होते हैं जो पूरी फिल्म निर्माण की प्रक्रिया के दौरान परदे के पीछे इस जद्दोजहद में लगे होते हैं कि दर्शकों तक पहुंचने वाले सिनेमा का हर फ्रेम कैसे गुणवत्ता की कसौटी पर खरा उतरे. सिनेमा की कामयाबी के बाद भी ऐसे नायकों के हिस्से ज्यादातर बार गुमनामी का धुंधलका ही आता है. पर कुछ ऐसी शख्सियतें भी होती हैं जो अपने चुपचाप अपने काम को अंजाम देते हुए एक दिन कामयाबी की उन बुलंदियों पर जा खड़े होते हैं जहां उसे दुनिया को अपनी पहचान बताने की जरूरत नहीं पड़ती. सिनेमा की दुनिया के एक ऐसे ही नाम हैं सुभाष साहू. नाम से शायद आप भले परिचित ना हों, पर काम ऐसा कि फिर किसी परिचय की जरूरत ही ना पड़े. पेशे से साउंड इंजीनियर सुभाष साहू के हिस्से हिंदी के अलावे अलग-अलग भाषाओं की कुल 120 फिल्में जमा हैं. जिनमें सरफरोश, मंगल पांडेय, ओंकारा, खोंसला का घोंसला, कमीने, हंसी तो फंसी, एनएच 10, नीरजा और रोमियो अकबर वॉटर जैसी फिल्में हैं. दो राष्ट्रीय पुरस्कार, चार ओडिशा स्टेट अवार्ड, एक महाराष्ट्र स्टेट अवार्ड और कई फिल्मफेयर व स्क्रीन अवार्ड ले चुके सुभाष ने फिल्मेनिया के गौरव से खास बातचीत में अपनी ज़िंदगी, करियर और उपलब्धियों के कई अनछुए पहलुओं को साझा किया.
– सबसे पहले तो आपकी निर्देशित फिल्म द साउंडमैन मंगेश देसाई की उपलब्धियों के लिए बधाई. कैसा सफर रहा इस फिल्म का?
– फिल्म तो आप सबों के सामने है. जब आपकी कोई कृति आपको तारीफ के साथ-साथ सम्मान भी दिलाने लगे तो रश्क तो होता ही है. पहले मामी फिल्म फेस्टिवल के इंडियन फिल्म कैटेगरी के बेस्ट फाइव में चुना जाना, फिर इटली, अमेरिका, कनाडा और शिकागो जैसे 15-16 फिल्म फेस्टिवल में स्क्रीनिंग के लिए चयनित होना, ये सारी उपलब्धियां हौसले को दोगुना कर देती हैं. एक साउंड इंजीनियर होने के नाते ये मेरी ओर से मंगेश सर को एक श्रद्धांजलि स्वरुप है.
– सिनेमा में एक्टर बनने आया एक लड़का छोटे-मोटे एक्ट के बाद कब और कैसे साउंड इंजीनियर बन जाता है?
– एक्टर बनने का कीड़ा मेरे अंदर बचपन में ही जन्म ले चूका था. मैं जिस गांव से हूं वहां तब के समय में टीवी-रेडियो भी नहीं हुआ करता था. पूरे गांव में एंटरटेनमेंट का एक मात्र साधन गांव का होने वाला एनुअल फंक्शन ही था. जिसमें तरह-तरह के कल्चरल प्रोग्राम और नाटक हुआ करते थे. मेरे दो बड़े भाई नाटकों में एक्टर-डायरेक्टर का काम करते थे. उन्हीं के साथ मैंने नाटकों में बैकस्टेज काम और एक्टिंग शुरू कर दी. एक्टिंग का चस्का वहीं से लग गया. फिर पढ़ाई के बाद जब चेन्नई गया तो वहां वीकेंड पर हिंदी फिल्मों की शूटिंग के दौरान जूनियर आर्टिस्ट का काम करने लगा. इसी दौरान एक्टिंग में आगे जाने के लिए एक साल तक ब्रेक डांसिंग का भी कोर्स किया. पर आगे चलकर हालात कुछ ऐसे बने कि अभिनय से साउंड इंजीनियरिंग की ओर शिफ्ट होना पड़ा.
– वो हालात क्या रहे, विस्तार से बताएं.
– दरअसल बात ये थी कि कुछ वक़्त जूनियर आर्टिस्ट के तौर पर काम करने के बाद लगा कि अच्छा एक्टर बनने के लिए मिथुन, शत्रुध्न, जया बच्चन जैसे मुझे भी पुणे FTII में एडमिशन लेना चाहिए. पर जबतक मुझे इसके बारे में पता चला तबतक एक्टिंग कोर्स बंद हो चुकी थी. तब केवल चार कोर्स साउंड, कैमरा, डायरेक्शन एंड एडिटिंग ही थे. फिर मैंने देखा साउंड ही ऐसा कोर्स था जिसमें सबसे ज्यादा क्वालिफिकेशन की जरूरत थी. फिजिक्स और इलेक्ट्रॉनिक्स के साथ साइंस की डिग्री मस्ट थी. जो कि संयोग से मेरा सब्जेक्ट रहा था. हर कोर्स के लिए केवल आठ सीट थे, मतलब हर कोर्स में कॉम्पिटिशन टफ था. तब मैंने सोचा अगर मैं साउंड के लिए अप्लाई करता हूं तो शायद मैं अपने हाइली एडुकेटेड होने की वजह से एडमिशन पा सकूं. यह सोचकर मैंने साउंड के कोर्स के लिए अप्लाई कर दिया. और तीन चरण के टेस्ट के बाद मेरा एडमिशन FTII में हो गया. यहाँ से एक्टिंग के शौक का ट्रांसफॉर्मेशन साउंड इंजीनियर के रूप में होना शुरू हो गया.
– परदे पर दिखते हीरोज की हिस्ट्री तो सब जानते है, आप जैसे बैकस्टेज रियल हीरो की कहानी भी सबको पता होनी चाहिए. तो कुछ अपनी हिस्ट्री का जिक्र करें.
– ओडिशा में केंद्रपारा डिस्ट्रिक्ट के बलुरिआ गांव में पैदा हुआ. पिताजी की भुवनेश्वर में छोटी मिठाई की दुकान थी. नौ भाई-बहनों में मैं आठवें नंबर पर था. तो आप फैमिली स्टेटस का अंदाजा लगा सकते है. गांव-समाज में पढ़ाई का बिलकुल माहौल नहीं था. गांव के लड़के कम उम्र में ही नौकरी करने शहर भाग जाया करते थे. मेरे पिताजी खुद ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे पर उनको शायद पढ़ाई-लिखाई के इम्पोर्टेंस का इल्म था. शहर में दुकान होने की वजह से वो पढ़ाई वाले माहौल और लोगों से परिचित थे. इसलिए हमलोगों के बाबत उनका पढ़ाई पर काफी जोर था. स्कूल के बाद हमलोग आगे की पढ़ाई के लिए भुवनेश्वर गए. चूंकि हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी सो हमलोगों को दुकान के काम में भी हाथ बंटाना पड़ता था. फिर उसके बाद के वक़्त में अपनी पढ़ाई करते थे. फिर भुवनेश्वर से कॉलेज करने के बाद मैं मद्रास चला गया जहां से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन में इंजीनियरिंग की. इंजीनियरिंग के बाद मैंने वापस भुवनेश्वर आकर सर्विस इंजीनियर के तौर पर नौकरी ज्वाइन की. लेकिन इसी बीच इंजीनियरिंग के दौरान वो सिनेमा और जूनियर आर्टिस्ट वाले काम शुरू हो चुके थे और उस दौरान जो एक्टिंग का भूत सवार हुआ था वो मुझे फिर से FTII की ओर ले गया.
– FTII के कुछ अनुभव बताएं?
– देखिये जैसा सबको मालूम है FTII सेंट्रल गवर्नमेंट से मॉनिटर होने वाला इंस्टिट्यूट है. सो वो हर स्टूडेंट पर अच्छी-खासी रकम खर्च करते हैं. वहां के कोर्सेस का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आप किसी भी कोर्स को ज्वाइन करें पर पहले साल आपको हर कोर्स की बेसिक पढ़ाई करनी पड़ती है. और साथ ही पहले साल हर स्टूडेंट को अपनी एक पांच मिनट की फिल्म डायरेक्ट करनी पड़ती है. यही वजह है कि वहां से किसी भी स्पेशलाइजेशन में पास आउट स्टूडेंट को फिल्म के अन्य विधाओं की भी जानकारी होती है. इस बात का फायदा उठाकर वहां शुरुआत के दो साल मैंने जमकर एक्टिंग भी की. पर थर्ड ईयर आने के साथ-साथ मुझे अपने डिक्शन में ईस्टर्न लहजे की वजह से आने वाले प्रॉब्लम्स के कारण इस बात का इल्म हो गया था कि एक्टिंग फील्ड आगे जाकर मेरे लिए बहुत मुश्किलें पैदा करेगा. और मैं इस स्थिति में भी नहीं था कि आगे और स्ट्रगल कर सकूं. सो मेरा रास्ता साउंड इंजीनियरिंग की ओर मुड़ गया और मैंने उसी ओर खुद को फोकस कर लिया.
– अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर FTII जाने के डिसीजन पर घरवालों की आपत्ति नहीं हुयी?
– आपत्ति तो थी, पर मैंने ये खुलकर बोल दिया था कि आप भले मुझे इकोनॉमिक सपोर्ट ना दो पर FTII तो मैं जाऊंगा ही. उस वक़्त मेरे बड़े भाई जो एयरफोर्स ज्वाइन कर चुके थे और घर की आर्थिक हालात सुधारने में लगे थे, उन्होंने मेरी मदद की. उनसे चार हज़ार की मदद ले कर मैं पुणे पहुंचा. वहां जब अन्य लड़कों के महीने के हजार-दो हजार आते थे मैं 300-400 रूपये महीने में सर्वाइव करता था. एक कपड़े-एक जोड़ी जूते में महीनों काटे. छुट्टिओं में जब स्टूडेंट्स अपने गांव जाते थे मैंने वहीं रहकर काम करना शुरू किया, फिर उन्हीं पैसों से खर्च चलाना शुरू किया. इस तरह मैंने सेकंड ईयर आते-आते घर से मदद लेनी बंद कर दी. इस चक्कर में कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों से बाद में लौटाने का वादा करके उधार भी लिया. ऐसे करके मैंने FTII की पढ़ाई पूरी की.
– पुणे से मुंबई का रुख कैसा रहा?
– वो किस्सा भी मजेदार रहा. आज भी याद है वो सफर. पुणे से सबसे सस्ती वाली ट्रेन का टिकट लिया था. तीन दोस्त एक साथ उस रात दादर स्टेशन उतरे थे. मेरी जेब में बस 185 रुपया था. दादर स्टेशन पर हम एक फ्रॉड टैक्सीवाले के चक्कर में पड़ गए. तब के समय में दादर से अंधेरी का किराया जहां मुश्किल से 125-150 रूपये होता, उसने तीन घंटे घुमाने के बाद हमसे 750-800 रूपये ले लिए. स्थिति ये हो गयी कि जेब में जो 185 रूपये थे वो वहीं ख़त्म हो गए. पर FTII के नए स्टूडेंट्स के लिए एक सौभाग्य की बात ये होती है कि मुंबई में रह रहे सीनियर्स का घर उनके शुरूआती दिनों का आसरा बन जाता है. ये उन सारे स्टूडेंट्स के बीच के क्लोज बॉन्डिंग का नतीजा होता है जो इंस्टिट्यूट में ही बन चूका होता है. तो वहां मुझे भी एक सीनियर के यहां आसरा मिल गया. फिर वहां से शुरू हुआ काम का सिलसिला.
– सफलता की कहानी को कैसे याद करते हैं?
– शुरूआती दिनों में छोटे-छोटे काम से महीने का ढाई-तीन हज़ार आ जाता था जिससे सर्वाइवल शुरू हो गया. ऐसे ही करते-करते 1996 में मुझे मेरी पहली ओड़िया फिल्म मिली जिसके लिए मुझे ओडिशा का स्टेट अवार्ड मिला. सन 2000 में सिनेमा में सिंक साउंड आने के बाद से थोड़ी कमर्शियली सफलता मिलनी शुरू हुई. पर मेरे करियर की असली टर्निंग पॉइंट बानी विशाल भारद्वाज की ओंकारा. इस फिल्म के लिए मुझे पहला नेशनल अवार्ड और पहला फिल्मफेयर अवार्ड मिला. फिर मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. तब से अबतक 120 फिल्में कर चूका हूं. जिसमें ओंकारा और कमीने के लिए दो बार नेशनल अवार्ड, कई फिल्मफेयर और स्क्रीन अवार्ड मिले, चार ओडिशा स्टेट अवार्ड, एक महाराष्ट्र स्टेट अवार्ड मिल चूका है. बीच में मैं पुणे FTII के गवर्निंग कॉउंसिल का मेंबर भी रहा. इंडिया से ऑस्कर भेजी जाने वाली फिल्म के चुनाव करने वाले ज्यूरी का मेंबर भी रहा. इतने सारे अवार्ड्स और सफलता के बाद सिनेमा की पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स को सीखाने की गरज से अब तो हर साल पुणे फिल्म संस्थान और सत्यजीत रे फिल्म संस्थान जैसे इंस्टिट्यूट में जाकर पढ़ाना भी शुरू कर दिया है.