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फिल्मीनामा: सुजाता

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filmania entertainment


– चंद्रकांता

लोकप्रिय या पॉपुलर सिनेमा का काम मनोरंजन के अतिरिक्त समाज के यथार्थ को उघाड़ना और अपने समय के ठोस प्रश्नों से जूझना भी है. सिनेमा अपने कथानक के जरिये हमारे समाज की नब्ज को पकड़ता है; इसलिए वह समाज में परिवर्तन को प्रस्तावित करने वाला महत्वपूर्ण मंच भी है . भारतीय सिनेमा अपने सौ वर्ष पूरे कर चुका है . अपने पहले शतक के इस सुहाने सफर में सिनेमा की तबीयत समाज और देश में हो रहे परिवर्तनों से अछूती नहीं रही . 1913 में भारतीय सिनेमा की पहली पूर्ण अवधि की फिल्म राजा हरिश्चंद्र प्रदर्शित की गई. हिन्दी सिनेमा की शुरुआत में जहां धार्मिक-पौराणिक फिल्में अधिक बनी वहीं चालीस के दशक के आस-पास जाकर फिल्मों में यथार्थवाद प्रभावी हुआ. इसकी छाया स्वरूप जातिगत भेदभाव या अछूत समस्या, बाल विवाह, मजदूर और पलायन की समस्या आदि कथानक पर भी फिल्में बनने लगीं .

1959 में विमल रॉय की फिल्म ‘सुजाता’ आई जिसमें एक उच्च जाति के  लड़के और अछूत लड़की के मध्य प्रेम संबंध को दिखाया गया. यह फिल्म सुबोध घोष की संक्षिप्त बंगाली कहानी ‘सुजाता’ पर आधारित थी. इससे पहले 1936 में बाम्बे टाकीज़ की फिल्म ‘अछूत कन्या’ में उच्च जाति के लड़के प्रताप और अछूत जाति की लड़की कस्तूरी के बीच असफल प्रेम को पर्दे पर दिखाया जा चुका था . लेकिन ‘सुजाता’ के माध्यम से हिन्दी सिनेमा एक और पायदान ऊपर चढ़ा और आखिरकार फिल्मों में एक उच्च जाति के लड़के का विवाह एक अछूत लड़की से संभव हो सकने की स्थितियाँ बनीं. सूक्ष्म स्तर पर ही सही सामाजिक ढांचे में परिवर्तन की अनुगूँज सिनेमा में भी सुनाई दी . डा. अंबेडकर और फुले दंपति सरीखे समाज सुधारकों द्वारा छुआछूत की अमानवीय प्रथा के विरोध की गूंज अब सिनेमा तक भी पहुंची .

विमल रॉय प्रोडकशन की फिल्म ‘सुजाता’ की शुरुआत एक ऐसे परिवेश से होती है जहां कामगार मजदूरों की बस्ती में हैजा फैला हुआ है. इंजीनियर उपेन चौधरी ( तरुण बोस )  की बेटी रमा की पहली वर्षगांठ है तभी मजदूरों का एक झुंड गोद में एक बच्ची को लेकर वहाँ आता है . उस बच्ची के माता-पिता की मृत्यु हैजे से हो चुकी है. मजदूर उस बच्ची के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी उपेन से लेने को कहते हैं . लेकिन, उपेन और उसकी अर्धांगिनी चारु ( सुलोचना ) उच्च जाति से हैं जबकि अनाथ बच्ची अछूत जाति की है .  बच्ची को लेकर मजदूर उपेन बाबू से खूब मान-मुरव्वत करते हैं. बहोत ना-नुकर करने के बाद आखिरकार सहृदय उपेन बच्ची को अपने पास रखने के लिए तैयार हो जाता है . बच्ची का नाम सुजाता रखा जाता है जिसकी परवरिश उपेन की बेटी रमा ( शशिकला ) के साथ होने लगती है . फिल्म में सुजाता की भूमिका नूतन ने अभिनीत की है . नूतन ने अपने नैसर्गिक अभिनय से सुजाता के चरित्र को जीवंत बना दिया है .   

रमा और सुजाता की परवरिश तो एक साथ होती है लेकिन ‘एक जैसी’ नहीं होती. रमा एक चंचल किस्म की लड़कीं है वह कालेज में पढ़ती है. रमा की रुचि किताबों, थियेटर और नृत्य में है. सुजाता अनपढ़ है और घर के सब काम-काज संभालती है. सुजाता पूरी निष्ठा से चौधरी परिवार के प्रति समर्पित है . चारु को सुजाता की पढ़ाई-लिखाई में कोई रुचि नहीं है . चारु एक ममतामयी मां है लेकिन अछूत कुल से होने के कारण वह कभी भी सुजाता को मन से अपनी बेेटी नहीं स्वीकार पाती . जब उपेन अनाथ बच्ची का नाम सुजाता रखता है तब चारु यह कहने से नहीं चूकती की  ‘ जाति कुजाता और नाम सुजाता’ . चारु बाहरवालों से परिचय करवाते हुए हमेशा रमा को अपनी बेटी बुलाती है और सुजाता को ‘बेटी जैसी’ .

वक्त गुजरता है रिटायरमेंट के बाद चौधरी परिवार बुआ जी ( ललिता पवार ) के घर के पास स्थानांतरित हो जाता है . बुआ जी अपने नाती अधीर के साथ रहती हैं; अधीर की भूमिका अभिनेता सुनील दत्त ने निभाई है. अधीर सुजाता कि सादगी और गुणों से प्रभावित होकर उससे प्रेम करने लगता है . लेकिन, चारु और बुआ जी चाहती हैं कि रमा का ब्याह अधीर से हो. अपनी छोटी बहन कि खुशियों का ख़्याल करते हुए सुजाता प्रेम के पथ पर बढ़ते हुए अपने कदम वापस ले लेती है और आत्महत्या कि कोशिश करती है . अधीर सुजाता के लिए अपना घर-बार त्याग देता है और नानी को समझाता है कि ‘अछूत कोई जाति से नहीं अपने संस्कारों से होता है’ .

घटनाक्रम बदलता है और चारु को खून की जरूरत आन पड़ती है घर में केवल सुजाता का रक्त चारु से मेल खाता है . सुजाता के रक्तदान की वजह से चारु का जीवन बच जाता है . चारु को अपनी गलतियों का एहसास होता है.  इस बिन्दु पर आकर उसका उसका ‘हृदय परिवर्तन’ होता है और वह सच्चे मन से सुजाता को अपनी बेटी के रूप में अपनाती है . जहां तक अदाकारी की बात है तरुण बोस, सुलोचना, शशिकला, सुनील दत्त और ललिता पवार सभी ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है लेकिन नूतन का सहज अभिनय इस फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि रहा .

‘सुजाता’ फ़िल्म का संगीत सचिन देव बर्मन ने दिया था जो बेहद लोकप्रिय हुआ . फिल्म के सभी गीत कर्णप्रिय हैं. तलत महमूद का गाया ‘जलते हैं जिसके लिए मेरी आँखों के दिए’ गीत हिन्दी सिनेमा के बेहतरीन गीतों में शामिल है. इस गीत का फिल्मांकन और नूतन का अभिनय दिल को छू लेने वाला है . फिल्म में एक खूबसूरत लोरी गीत ‘नन्ही कली सोने चली हवा धीरे आना ‘ भी है जिसे गीता दत्त ने गाया है .  मो. रफी और आशा भोसले ने भी इस फिल्म गीतों को अपनी आवाज़ से संवारा है. फिल्म के गीत मजरुह सुल्तानपुरी ने लिखे हैं . मजरूह साहब हिन्दी सिनेमा के एक प्रसिद्ध गीतकार और प्रगतिशील आंदोलन के उर्दू के सबसे बड़े शायरों में से एक थे. नासिर हुसैन के साथ उन्होने कई यादगार फिल्में हिंदी सिनेमा को दी हैं .

‘सुजाता’ अपने समय की जड़ता को तोड़ने वाली  एक उल्लेखनीय फिल्म है . लगभग ढाई दशक के अंतराल के बाद सुजाता के माध्यम से हिंदी सिनेमा में एक बार फिर से दलित विमर्श की शुरुआत हुई . हालांकि इस दौर के सिनेमा का नजरिया भी सामाजिक व्यवस्था में सुधार को लेकर गांधीवादी ही रहा . ‘सुजाता’ जमीनी स्थितियों में कोई ठोस सामाजिक हस्तक्षेप तो नहीं करती लेकिन फिर भी समानता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए समाज के लिए आशा की एक किरण बनकर जरूर आती है . ‘सुजाता’ उस साल फिल्मफेयर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म रही. विमल राय को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का, अभिनेत्री नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का और सुबोध घोष को सर्वश्रेष्ठ कथा लेखन का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला .  मल्टीप्लैक्स सिनेमा के दौर में सुजाता जैसी फिल्मों का अभाव बहोत बड़ा है. फिलहाल दूरदर्शन सरीखे माध्यमों को सुजाता जैसी सार्थक फिल्मों के लिए एक अलग ‘टाइम स्लाट’ उपलब्ध करवाना चाहिए . जहां दर्शक इस तरह के क्लासिक सिनेमा का लुत्फ उठा सकें.