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फिल्मीनामा: नीचा नगर

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filmania entertainment


-चंद्रकांता

‘नीचा नगर’ ( lowly city ) चेतन आनंद द्वारा निर्देशित पहली हिन्दी फिल्म थी . यह फिल्म ‘बालीवुड फंतासी’ की जगह यथार्थ को अपनी अंतर्वस्तु बनाती है. फिल्म का कथानक अमीरों और गरीबों के बीच अवसरों के भेद और संसाधनों की विषमता को उजागर करता है. फिल्म की कहानी ख्वाजा अहमद अब्बास और हयातुल्लाह अंसारी ने लिखी है . इससे ठीक पहले ख्वाजा अहमद बंगाल के भीषण आकाल पर ‘धरती के लाल’ ( 1945 ) फिल्म लिख चुके थे . इस फिल्म से हिन्दी सिनेमा में उन यथार्थवादी फिल्मों का आगमन हुआ जिन्हें आप और हम ‘आर्ट या कला सिनेमा’ के नाम से जानते हैं. नीचा नगर मैक्सिम गोर्की के समाजवादी नाटक ‘द लोअर डेप्थ’ से भी प्रभावित थी . फिल्म समाजवादी यथार्थ की दृष्टि से बुनी गयी है .  यह फिल्म वर्ग – संघर्ष को पूरी नग्नता के साथ उघाड़ती है और समाज को सोचने पर मजबूर करती है.
फिल्म में एक अमीर भूस्वामी है जिसे लोग ‘सरकार’ कह कर बुलाते हैं.  वह अपनी बेटी माया ( उमा आनंद ) के साथ ऊंचा नगर में रहता है . ऊंचा नगर पहाड़ियों पर बसा है जहां शहर के तमाम रसूखदार लोग और बुद्धिजीवी रहते हैं. जबकि गरीब लोग तराई के इलाके में रहते हैं जिसे ‘नीचा नगर’ के नाम से जाना जाता है . सरकार शहर के विकास को ढाल बनाकर पहाड़ों के एक नाले को नीचा नगर की ओर मोड़ देने का प्रस्ताव करते हैं. बलराज बस्ती का एक प्रबुद्द व्यक्ति है जो बाकी लोगों के साथ सरकार के इस फैसले का पुरजोर विरोध करता है.सरकार जब एक तकरीर के दौरान बलराज को खामोश रहने के लिए कहता है तो बलराज जवाब देता है – ‘अब चुप रहने का जमाना गया’. यह बस्ती के लोगों द्वारा विद्रोह की शुरुआत है. 
लेकिन, बस्ती के कुछ लोग सरकार के हाथों बिक जाते हैं और अंततः शहर के विकास और नई इमारतें खड़ा करने के लिए नाले को नीचा नगर की तरफ मोड़ दिया जाता है. पानी के बहाव से उसमें दलदल भी मिल जाता है. गंदगी की वजह से पशु-पक्षी मरने लगते हैं . हद्द तो तब हो जाती है जब सरकार नल की मरम्मत के नाम पर नीचा नगर का पानी रुकवा देते हैं. बस्ती में साफ पानी का अभाव हो जाता है और बस्ती के लोग बीमार पड़ने लगते हैं. उधर सरकार कहते हैं कि ‘नाले की वजह से बीमारी नहीं फैल रही, / बीमारियां तो आती-जाती रहती हैं, / बीमारी की रोकथाम बस भगवान कर सकते हैं.’  बीमारी से लोगों को राहत दिलाने के लिए सरकार नीचा नगर में अस्पताल खुलवाने की मुनादी करवाते हैं.
बलराज की तरह ही बस्ती के हकीम याकूब चाचा भी बस्ती की आवाम के लिए फिक्रमंद होते हैं. वह लोगों को समझाते हैं कि ‘जब तक ये नाला है तब तक बीमारी है / जब तक बीमारी है तब हम अस्पताल के मोहताज रहेंगे / और यह अस्पताल चल रहा है उन इमारतों की आमदनी से जो नाला हटाकर बनी हैं.’ चाचा का यह कथन आम आदमी के खिलाफ सत्ता तंत्र की साजिश और उसके धनकुबेरों से गठजोड़ को पूरी नग्नता से उघाड़ता है . याकूब चाचा ‘सेवा आश्रम’ बनाने की बात कहते हैं जहां बीमारों की देखभाल की जा सके. बलराज और बस्ती के बाकी लोग मिलकर तय करते हैं कि वे अस्पताल नहीं जाएंगे. लेकिन मरता क्या न करता ! जानलेवा बीमारी से त्रस्त बस्ती वाले आखिरकार अस्पताल जाने के लिए  मजबूर हो जाते हैं. 
बस्ती में रहने वाला सागर जो सरकार के हाथों की कठपुतली है लोगों को बलराज के खिलाफ भड़काता है. लेकिन जब उसकी प्रेयसी और बलराज की बहन रूपा ( कामिनी कौशल ) बुखार और बीमारी से दम तोड़ देती है तब सागर का हृदय परिवर्तन होता है. बस्ती के लोगों के मन में यह बात घर कर जाती है कि ‘रूपा मर गई लेकिन अस्पताल नहीं गई’ जिसका सांकेतिक अर्थ है कि वह पूंजी और सत्ता के सामने नहीं झुकी. रूपा की कुर्बानी का असर होता है. लोग वापस एकजुट होते हैं. बीमार लोग अस्पताल छोड़कर चले जाते हैं और खुलकर अस्पताल का बहिष्कार करते हैं. ऊंचा नगर के बुद्धिजीवी भी इस बात को अपना वैचारिक समर्थन देते हैं. वे नगरीय सुविधाओं का बहिष्कार करते हैं जिससे सरकार और ऊंचे रसूख के लोगों को आर्थिक नुकसान पहुंचता है. खुद सरकार की बेटी माया नीचा नगर की आबादी के लिए कुछ नहीं कर सकने का पश्चाताप करती है और अंततः वह भी उनके संघर्ष में साथ खड़ी हो जाती है. रूपा और माया के किरदार हमें आश्वस्त करते हैं की महिलाएं किसी भी किस्म के अन्याय के खिलाफ हैं और उनकी भागीदारी किसी भी तरह पुरुषों से कमतर नहीं है. अपने समय की बाकी फिल्मों की तरह ‘नीचा नगर’ भी गांधीवादी आदर्शों से भी प्रभावित है. 
फ़िल्म का यूट्यूब प्रिंट बेहद खराब है इसलिए आपको फिल्म देखने के लिए काफी मेहनत करनी होगी . लेकिन यकीन जानिए आप निराश नहीं होंगे. फिल्म में कैमरा का काम कई दृश्यों में बेहद अच्छा है जिसका श्रेय कैमरामैन विद्यापति घोष को जाता है . फिल्म से इप्टा ( IPTA ) के सदस्य भी जुड़े रहे. अफसोस की बात है की इस फिल्म के लिए उस वक़्त डिस्ट्रीबूटर्स तक नहीं मिले. फिल्म के महान उद्देश्य कमर्शियल मोल – भाव के सामने फीके पड़ गए. फिल्म में माया की भूमिका निभाने वाली कलाकार उमा आनंद चेतन आनंद की अर्धांगिनी थीं. उमा ने अपनी किताब ‘ दी पोएटिक्स आफ फिल्म ‘ में इस बात का जिक्र किया है की चेतन आनंद को फिल्म के लिए डिस्ट्रीब्यूटर नहीं मिल रहे थे  उस वक़्त उन्हें कलकत्ता से एक खत मिला जिसे लिखने वाले व्यक्ति ने नीचा नगर को अपनी पहली फिल्म की प्रेरणा बताया. यह व्यक्ति कोई और नहीं महान निर्देशक सत्यजित रे थे. वर्षों बाद , सुब्रत मित्र को इस फिल्म की रील कहीं कबाड़ में पड़ी मिली जिसे उन्होने ‘नेशनल फिल्म आर्काइव्स ‘ को सौप दिया. सुब्रत ने सत्यजित रे की कई फिल्मों में बतौर कैमरामैन काम किया है. 
‘कामिनी कौशल और ज़ोहरा सहगल की यह पहली फिल्म थी. ज़ोहरा जी ने ही इस फिल्म का नृत्य निर्देशन भी किया. इस फिल्म के माध्यम से प. रविशंकर ने पहली बार हिन्दी  सिनेमा के लिए संगीत दिया. . ‘उठो की हमें वक़्त की गर्दिश ने पुकारा’ या ‘कब तक गहरी रात रहेगी’, ‘एक निराली सोच जगी है’, ‘अब झुकेंगे फिर नहीं’ जैसे सार्थक, परिवर्तनकामी और प्रगतिशील गीत इस फिल्म का हिस्सा हैं. मूल फिल्म में कमर्शियल शैली के गीत और नृत्य भी थे लेकिन उन्हें संपादित कर दिया गया . 
‘नीचा नगर’ यथार्थवादी सिनेमा में मील का पत्थर है. आम आदमी की जमीनी स्थितियों  में आज भी कोई आमूल – चूल परिवर्तन नहीं आया है बस समस्याओं का स्वरूप बदल गया है. सत्ता के चरित्र को परिभाषित करने वाली यह एक उम्दा फिल्म है. 2.0 जैसी लार्जर देन लाइफ फिल्में  ‘नीचा नगर’ जैसे यथार्थपरक सिनेमा के समक्ष एक बचकानी सी हरकत लगती है. नीचा नगर अपनी कथावस्तु की बुनावट और अपने सिनेमाई स्वाद दोनों में यथार्थपरक और ठेठ भारतीय हैं. आज सिनेमा के सौ साल पूरे हों जाने पर भी ऐसे कथानक पर कोई सुरुचिपूर्ण फ़िल्म मिल सकना दुर्लभ है. क्या आप जानते हैं की चेतन आनंद की फिल्म ‘ नीचा नगर’ को 1946 में कान में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिल चुका है ! सिनेमा के उस सुनहरे दौर में जब मार्केटिंग की भाग-दौड़ और रेड कार्पेट का जलवा नहीं था यह एक ऐसी फिल्म थी जिसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर खूब सराहना मिली. यह बेहद दुखद है की इस फिल्म को हिन्दी सिनेमा के इतिहास में वह सम्मान नहीं मिल सका जिसकी यह हकदार थी.