Mon. Jun 5th, 2023

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अभिनेता हूं, संतुष्ट हो गया फिर तो खेल ही ख़त्म: रहाओ

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-गौरव

कौन कहता है आसमां में सुराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों.
और ये कोई क ोरी कहावत नहीं, वरना कौन सोच सकता था कि शाहजहांपुर के एक छोटे से गांव का लड़का जीतने के जूनून में अपने सपनों के पीछे इस कदर पड़ जाएगा कि झख मारकर क ामयाबी को उसके कदम चुमने ही पड़ेंगे. जी हां, ऐसी ही कहानी है जिद और जूनून के दम पर सिनेमाई दुनिया में पुरजोर तरीके से दस्तक देने वाले अभिनेता रहाओ की. जूनून भी ऐसा कि मुंबई जैसे शहर में तीन साल खाली बैठे रहने के बावजूद कभी वापस मुड़ने की नहीं सोची. यही वजह है कि खाते में अटैक्स ऑफ़ 26/11, किस्सेबाज़, स्पेशल 26, बेबी, नीरजा, किलिंग वीरप्पन और इंडियाज मोस्ट वांटेड या फिर आने वाली फिल्में खानदानी शफाखाना और शेरशाह जैसी फिल्में जमा हैं. फिल्मेनिया से खास बातचीत में रहाओ ने अपने इसी जर्नी के उतार-चढ़ाव और कई संजो कर रखे जाने वाले पलों को साझा किया.

– आठ साल, नौ बड़े निर्देशकों की फिल्में, मुंबई जैसे शहर में आठ साल के इस लम्बे संघर्ष के दौरान कभी वापसी का ख्याल नहीं आया?
– बड़ी फिल्मों के बावजूद संघर्ष तो अभी भी जारी है. निराशा जैसा ख्याल तो शायद कभी नहीं आया क्यूंकि ये दुनिया अपने लिए मैंने खुद चुनी है. तो इसके हिस्से की मेहनत भी मुझे ही करनी है. तब दो ही रास्ते बचते हैं. या तो पलटकर वापस हो जाओ या बचपन से जिस दुनिया का ख्वाब पाले बैठे हो संघर्ष करो और उसे हासिल करो. और वापस जाने के तो मैं यहाँ आया नहीं था. सो संघर्ष जारी है.
– इस ख़्वाब का बीज कब और कैसे पड़ा?
– क्या कहूं. अगर ये कहूं कि एक ऐसा लड़का जिसने बचपन से घर में रेडियो और टीवी तक नहीं देखा हो वो अगर अभिनेता बनने का सपना देखता है तो आपको आश्चर्य ही होगा. छठी कक्षा में था जब स्कूल में भगत सिंह पर नाटक देखा था. और वो पहली बार था जब मन के किसी कोने में बैठे अभिनेता ने दस्तक दी थी. पर गाँव के मिडिल क्लास फैमिली में अगर हीरो बनने की बात की जाए तो तूफ़ान का अंदाजा आप लगा ही सकते हैं. सो काफी समय बाद तक घर में किसी से इस बात नहीं की. आप यकीन नहीं करेंगे ग्रेजुएशन के दौरान मैंने घरवालों को बिना बताये थिएटर करना शुरू कर दिया. घरवालों को तो तब पता चला जब बीएनए में सिलेक्शन के बाद मैंने उन्हें बताया.
– फिर उनकी प्रतिक्रिया क्या रही?
– घरवाले आर्मी में भेजना चाहते थे. मैंने और मेरे छोटे भाई ने साथ फॉर्म भी भरा था. पर रिटेन टेस्ट से पहले मैंने भाई को कहा मैं ये टेस्ट नहीं दे रहा बस तुम घर में मत बताना. मेरा भाई एयर फ़ोर्स में है, और उसने आज तक घर में ये नहीं बताया कि मैंने वो टेस्ट दिया ही नहीं था. जब घरवालों को ये लगा की मेरा आर्मी में सिलेक्शन नहीं हुआ तब उन्होंने एक्टिंग की इजाजत दे दी. सबसे ज्यादा सपोर्ट मेरे बड़े भाई ने किया. आज भी जब कभी ज़िन्दगी में किसी बात की जरूरत होती है वो हर वक़्त मेरे सपोर्ट में खड़े रहते हैं.
– आपके नाम को लेकर बड़ी दिलचस्प कहानी है, उसे विस्तार से बताईये जरा.
– वो वाकई एक दिलचस्प वाक्या है, जिस वजह से आज तक दुविधा की स्थिति बनी हुयी है. हुआ यूँ कि 26/11 के असिस्टेंट डायरेक्टर ने मजाक-मजाक में फिल्म की क्रेडिट में मेरा नाम शाद ओरहान दे दिया, जबकि मेरा असल नाम रहाओ है. अगली फिल्म किलिंग वीरप्पन में भी शाद ओरहान की अलग ही स्पेलिंग डाल दी. नतीजा ये हुआ कि ख़बरों और साइट्स पर मेरे नाम को लेकर कन्फ्यूजन हो गया. मैंने भी शुरू में बहुत ध्यान नहीं दिया. फिर मैंने जब कोई लीड की फिल्म आएगी उसमें अपना असल नाम इस्तेमाल करूँगा. अब जब लीड एक्ट वाली फिल्म चलने दो आ रही है तो उसमें अपना असली नाम रहाओ इस्तेमाल किया है. इसके बाद एक और फिल्म धर्मा प्रोडक्शन की फिल्म शेरशाह कर रहा हूँ.
– मुंबई पहुँचने के बाद की यात्रा कैसी रही?
– मुंबई पहुंचकर थिएटर शुरू कर चूका था. सात-आठ महीने तक तो सिनेमा के लिए ऑडिशन का ख्याल भी दिमाग में नहीं आया था. फिर मेरे एक थिएटर की दोस्त के पिता, जिन्होंने मेरा प्ले देखा था, उन्होंने मेरा नाम 26/11 की कास्टिंग टीम को सुझाया. वहां जब मैं मिलने पहुंचा तो रामु सर ( राम गोपाल वर्मा ) ने मुझे देखते ही फाइनल कर लिया. उसके बाद नीरजा मिली, फिर नीरज पांडेय सर की स्पेशल 26 और बेबी मिली. ऐसे ही काम आगे बढ़ता रहा. सफर में संघर्ष भी काफी रहे. बीच में ऐसा भी वक़्त आया तीन साल तक मैंने कोई काम नहीं किया. पर इन संघर्षों का मुझे पहले से ही पता था. जानता था जिस फील्ड का चुनाव कर रहा हूँ वो संघर्षों पर ही टिका है. सो संघर्ष को भी एन्जॉय करने की कोशिश करता हूँ.
– आखिरी सवाल, आपके अंदर का अभिनेता अब तक किस हद तक संतुष्ट हो पाया है?
– अभिनेता है, संतुष्ट हो जाए फिर तो खेल ही ख़त्म. आज भी नए-नए किरदारों की तलाश रहती है. मन का किरदार मिल जाए तो उसमें ढलने तक भूख-प्यास सब ख़त्म हो जाती है. अब तो चुन-चुन कर फेस्टिवल्स वाली फिल्में भी करने लगा हूँ. कमर्शियल फिल्मों से खर्च चल जाता है तो फेस्टिवल्स वाली फिल्मों से अभिनय की भूख मिटाता हूँ. ऐसे ही सफर जारी है.
फिल्मोग्राफी- किस्सेबाज़, स्पेशल 26, बेबी, थुपक्की(साउथ), 26/11, लेस काऊबॉयज (फ्रेंच), किलिंग वीरप्पन, नीरजा, इंडियाज मोस्ट वांटेड,
आनेवाली फिल्में- चलने दो, खानदानी शफाखाना, शेरशाह


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